– डॉ. जगदीश गाँधी, संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ
हम तो निमित्त मात्र हैं:-
अक्सर यह देखने में आता है कि जब हम किसी की मदद करते हैं तो हमारे अंदर एक अभिमान सा आ जाता है कि हमने उसकी मदद की है लेकिन ऐसा है नहीं। हम तो निमित्त मात्र हैं। वास्तव में ईश्वर की हमारे ऊपर यह विशेष कृपा है कि उसने हमें इस लायक बनाया है कि हम किसी की तन, मन और धन से मदद कर पाते हैं। इसलिए हमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उस व्यक्ति के प्रति भी कृतज्ञता व्यक्त करनी चाहिए, जिसने हमारी इस सेवा को स्वीकार किया हो।
जो व्यक्ति जितना ज्यादा परोपकारी होता है वो उतना ही अधिक ईश्वर के समीप पहुंचता है:-
किसी ने सही ही कहा है कि मानवता से बढ़कर कोई भी धर्म नहीं है। रामायण में तुलसीदास जी कहते हैं – परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।। अर्थात् परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम कर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बढ़कर कोई पाप नहीं। परोपकार की भावना ही वास्तव में मनुष्य को ‘मनुष्य’ बनाती है। वास्तव में परोपकारी व्यक्ति सदा प्रसन्न रहता है और परोपकार के अवसर ढूढ़ता रहता है। वह दूसरे की मदद करके प्रसन्न भी होता है और उसे आत्म संतुष्टि भी मिलती है। वास्तव में जो व्यक्ति जितना ज्यादा परोपकारी होता है वो उतना ही अधिक ईश्वर के समीप पहुंचता है।
परोपकार की भावना मनुष्य को महानता की ओर ले जाती है:-
परोपकार की भावना मनुष्य को महानता की ओर ले जाती है। परोपकार से बड़ा कोई पुण्य/धर्म नहीं है। कबीर दास जी कहते हैं ‘‘बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर। पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।। अर्थात् खजूर के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी पंछी को छाँव दे सकता है और ना ही उसके फल आसानी से कोई पा सकता है। कविवर रहीम कहते हैं कि ‘‘तरूवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान। कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहि सुजान।। अर्थात् जिस तरह पेड़ कभी स्वयं अपने फल नहीं खाते और तालाब कभी अपना पानी नहीं पीते उसी तरह सज्जन लोग दूसरे के हित के लिये संपत्ति का संचय करते हैं।
प्रकृति भी हमें यही संदेश देती है कि परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है:-
वास्तव में परमात्मा ने हमें जो शक्तियां व सामथ्र्य दिया है वे दूसरों का कल्याण करने के लिए है। प्रकृति भी हमें यही संदेश देती है कि परोपकार ही सबसे बड़ा धर्म है। युगों-युगों से सूर्य बिना किसी स्वार्थ के पृथ्वी को जीवन देने के लिए प्रकाश देता है। चंद्रमा अपनी किरणों से सबको शीतलता प्रदान करता है, वायु अपनी प्राण-वायु से संसार के प्रत्येक जीव को जीवन प्रदान करती है। वहीं बादल सभी को जल रूप में अमृत प्रदान करते हैं।
जीव मात्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है:-
सच तो यह है कि स्वयं की उन्नति का, समाज की उन्नति का, विश्व कल्याण का परोपकार ही एक मात्र उपाय है। ईश्वर ने हमें कोई भी वस्तु स्वयं के उपभोग के लिए नहीं दी है, बल्कि इसलिए दी है कि इससे कितने ज्यादा लोगों का भला हो सकता है। परोपकारी मनुष्य ही सच्ची शांति को प्राप्त कर सकता है, स्थायी उन्नति कर सकता है, ईश्वर को प्राप्त कर सकता है और विश्व का कल्याण कर सकता है।
सब जीवों के साथ मित्रता और दयालुता का व्यवहार करें:-
गीता में श्रीकृष्ण कहते है- ‘‘हे अर्जुन! मैं उन भक्तों को प्यार करता हूँ जो कभी किसी से द्वेष-भाव नहीं रखते, सब जीवों के साथ मित्रता और दयालुता का व्यवहार करते हैं। वे कहते हैं ‘‘ममता रहित, अहंकार-शून्य, दुःख और सुख में एक-सा रहने वाला, सब जीवों के अपराधों को क्षमा करने वाला, सदैव संतुष्ट, मेरा ध्यान करने वाला, विरागी दृढ़ निश्चयी और जिसने अपना मन तथा बुद्धि मुझे समर्पित कर दी है, ऐसे भक्त मुझे अतिशय प्रिय हैं।’’ इस प्रकार दुनिया में मानवता से बढ़़कर कुछ नहीं है।
हमें सारे जगत् से प्रेम करने वाले विश्व नागरिक तैयार करने होंगे:-
इसलिए परिवार, स्कूल और समाज, तीनों को मिलकर विश्व के प्रत्येक बच्चे के मन-मस्तिष्क में बचपन से ही इस बात का बीजारोपण करना चाहिए कि ईश्वर एक है, धर्म एक है तथा मानवता एक है। उसी ईश्वर ने इस सारी सृष्टि को बनाया है और वह सारे जगत् से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता है। ऐसे ही हम सभी को भी सारे जगत् से प्रेम करने के साथ ही मानवतावादी विश्व नागरिक भी तैयार करने होंगे और तभी सारे विश्व में स्थायी शांति एवं एकता की स्थापना भी होगी।
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विद्यालयों में बच्चों को सम्पूर्ण मानवता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए:-
यदि विद्यालयों में सम्पूर्ण मानवता की सेवा का पाठ नहीं पढ़ाया गया तो बालक बड़ा होकर जाति-धर्म की भेदभाव भरी दृष्टि लेकर विकसित होगा। ऐसा व्यक्ति परिवार, समाज तथा विश्व को जोड़ने का नहीं वरन् तोड़ने में अपनी सारी ऊर्जा व्यर्थ करेंगा। विद्यालय द्वारा बालक को सिखाया जाना चाहिए कि यह विश्व मेरा घर तथा इसके समस्त नागरिक मेरे परिवार के सदस्य हैं। इसके साथ ही बालक को संसार को परायी दृष्टि से नहीं वरन् कुटुम्ब की तरह सेवा भाव से देखना सिखाया जाना चाहिए ताकि बड़े होकर वे पीड़ित मानवता के कष्टों को दूर करने के लिए अपना जीवन समर्पित कर सके।
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