Monday, December 2, 2024
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विश्व के अनमोल धरोहर है वृद्धजन

1 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस (विश्व के अनमोल धरोहर है वृद्धजन)

– डा0 जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,

सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

संयुक्त राष्ट्र संघ की 1 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस मनाने की घोषणा:-

संयुक्त राष्ट्र संघ ने 14 दिसम्बर 1990 में सदस्य राष्ट्रों की सहमति से 1 अक्टूबर को प्रतिवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय वृद्धजन दिवस के रूप में मनाने के लिए निर्णय लिया। इस महत्वपूर्ण दिवस में विश्व भर में वृद्धजनों से संबंधित समस्याओं के समाधान खोजने पर विचार-विमर्श होता है। तथापि उनके ज्ञान एवं अनुभव का अधिक से अधिक लाभ समाज हित में लेने के लिए योजनायें बनायी जाती है। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, दो राष्ट्रों के बीच तथा विश्व युद्धों से सबसे अधिक संकट बच्चों तथा वृद्धजनों के लिए सामाजिक असुरक्षा के संकट के रूप में आता है।

वर्तमान समय में लाखों बच्चे, महिलायें तथा वृद्धजन युद्धों की विभीषिका से बुरी तरह पीड़ित हो रहे हैं। युद्धों की तैयारी तथा आतंकवाद से निपटने में काफी धनराशि व्यय हो रही है जिससे गरीब तथा विकासशील देशों की आर्थिक, पारिवारिक एवं सामाजिक व्यवस्था चरमराती जा रही है। इसलिए हमारा मानना है कि एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था का गठन करके इन विश्वव्यापी समस्याओं पर प्रभावशाली कानून बनाकर अंकुश लगाया जा सकता है। युद्धों पर होने वाले व्यय को बचाकर उस धनराशि तथा मानव संसाधन से वृद्धजनों को सम्मान, स्वस्थ तथा सुरक्षित सामाजिक सुरक्षा से परिपूर्ण जीवन प्रदान किया जा सकता है। वृद्धावस्था में व्यक्ति अपने पारिवारिक दायित्वों से मुक्त हो जाता है। वृद्धावस्था में व्यक्ति को अपने परिवार के साथ ही सारे विश्व को अपने परिवार के रूप में मानना चाहिए।

अतः उनका आगे का जीवन सारे विश्व को विश्व एकता का मार्गदर्शन, मानवाधिकारों के संरक्षण, वसुधैव कुटुम्बकम् के विचारों, सेवाभावी कार्यों, योग, शिक्षा तथा जीवन जीने की कला का ज्ञान देने के लिए होना चाहिए। तथापि अपनी शारीरिक एवं मानसिक क्षमता के अनुसार योगदान देना चाहिए।  

पारिवारिक एकता का ज्ञान देने की जिम्मेदारी परिवार तथा स्कूल निभाये:-

विश्व में बुजुर्गों का परम स्थान है लेकिन तेजी से बदलते पारिवारिक तथा सामाजिक परिवेश में उनका स्थान लगातार नीचे गिरता जा रहा है। विश्व भर में बढ़ रही घोर प्रतिस्पर्धा से नैतिक तथा पारिवारिक एकता के मूल्यों का पतन होता जा रहा है। बुजुर्गों पर इसका प्रभाव ज्यादा है। जीवन के अंतिम पड़ाव में वह बेटे व परिवार के सुख से वंचित हो रहे हैं। इस पर जल्द नियंत्रण नहीं किया गया तो स्थिति भयावह हो जाएगी। बच्चों में बुजुर्गो के प्रति स्नेह व लगाव पैदा करना बहुत जरूरी है। वर्तमान समय में विदेशों में पढ़ने व अधिक धन कमाने के लिए, वहीं नौकरी करने तथा वहाँ स्थायी रूप से बसने वाले युवाओं की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी होती जा रही है। आधुनिक सुख-सुविधाओं की चाह में वे स्वयं तो विकसित देशों के बड़े शहरों में रहना चाहते हैं लेकिन अपने मां-बाप को ओल्ड ऐज होम तथा गांव-कस्बे में रखना चाहते हैं। बेटा जब अपने बूढ़े मां-बाप को अपने से दूर रखेगा तो उनकी सेवा कैसे हो सकती है? बच्चों को यह बताया जाए कि बुजुर्गों की सेवा से ही जीवन सफल हो सकता है। समाज तथा विशेषकर स्कूलों के लिए यह एक चुनौती है। इसके लिए मानवीय सूझबूझ से भरी व्यापक योजना बनाने की जरूरत है।

वृद्धजनों अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए सहेज कर रखते हैं:-  

प्रायः घरों में माता-पिता तथा स्कूलों में शिक्षक बच्चों को विभिन्न प्रकार की बातें समझाते हैं। वे कई बार अपनी बात कहने और समझाने के लिए विभिन्न प्रकार के सूत्र-वाक्यों का प्रयोग भी करते हैं। परंतु हमारी गलती यही रहती है कि हम उनकी नसीहतों और सूत्र-वाक्यों का अर्थ समझने का प्रयास ही नहीं करते। कई बार हम उनके मुख से ‘जैसा बोओगे वैसा काटोगे’ तथा ‘जहाँ चाह, वहाँ राह’ जैसी विभिन्न उक्तियों को नसीहतों के रूप में सुनते हैं, लेकिन उनकी बात का मर्म हम तब ही समझ पाते हैं, जब हमें ठोकर लगती है। वास्तविकता तो यह है कि इस प्रकार के मुहावरे और कहावतेें हमारे पूर्वजों या बड़े-बूढ़ों द्वारा रचा गया शब्दजाल नहीं होते, बल्कि ये तो उनके अथाह अनुभव भंडार से मिले कुछ अनमोल मोती है, जो उन्होंने जीवन को स्वीकार तथा समझकर अपने अनुभवों को भावी पीढ़ियों के लिए सहेज कर रखे होते हैं।

बच्चों को आज संस्कार कौन दे रहा है, टी.वी. या दादा-दादी, नाना-नानी?:-

आजकल के दौर में जब महिलाएं भी घर से बाहर काम करने जाती हैं और बच्चे घर में अकेले होते हैं तो ऐसे में अगर दादा-दादी व नाना-नानी का साथ मिल जाए तो वह खुद को सहज महसूस तो करते ही हैं, इसके अलावा उन्हें अपने परिवार की उपयोगिता भी भली-भांति समझ में आती है। अगर दादा-दादी और नाना-नानी का साथ हो तो बच्चे और अधिक भावुक और समझदार हो जाते हैं। इस प्रकार दादा-दादी और नाना-नानी बच्चों को केवल लाड़-प्यार ही नहीं करते बल्कि उनके नैतिक और मानसिक विकास को भी बढ़ावा देते हैं। परिवार में बुजुर्गों के अभाव में जो बालक अपना अधिकांश समय टी.वी. कम्प्यूटर, इन्टरनेट आदि वैज्ञानिक उपकरणों के साथ व्यतीत करते हैं उनका मन-मस्तिष्क हिंसक गेम, फिल्में व कार्टून के प्रभाव से नकारात्मकता से भर जाता है और वे असामाजिक कार्यों में संलग्न होकर परिवार एवं समाज के वातावरण को दूषित ही करते हैं। 

वृद्धजनों को पूरा सम्मान तथा सामाजिक सुरक्षा देना समाज का उत्तरदायित्व है:-

वर्तमान भौतिक युग में आज सारे विश्व में वृद्धजनों के प्रति घोर उपेक्षा बरती जा रही हैं। विकसित देशों ने इस समस्या से निपटने के लिए सरकार की ओर से वृद्धजनों के लिए ओल्ड ऐज होम स्थापित किये हैं। जिसमें वृद्धजनों के खाने-पीने, बेहतर आवासीय सुविधायें, आधुनिक चिकित्सा, स्वस्थ मनोरंजन, खेलकूद, ज्ञानवर्धन हेतु लाइब्रेरी आदि-आदि सब कुछ उपलब्ध कराया गया है। साथ ही वृद्धजनों को सम्मानजनक जीवन जीने के लिए अच्छी खासी पेन्शन भी सरकार की ओर से दी जाती है। हमारे देश में वृद्धजनों के लिए ओल्ड ऐज होम की सुविधायें नहीं हैं। सीनियर सिटीजन को दी जाने वाली पेन्शन की राशि भी बहुत कम है। इस दिशा में सरकार तथा कॅारपोरेट जगत को सार्थक कदम उठाकर वृद्धजनों को सम्मानजनक जीवन जीने के अवसर उपलब्ध कराने के लिए आगे आना चाहिए। साथ ही वृद्धजनों के अनुभव का लाभ उनके ज्ञान एवं रूचि के अनुसार समाज के विकास में लेने के लिए योजना बनानी चाहिए। ताकि वे नौकरी तथा व्यवसाय से अवकाश प्राप्त करने के बाद भी सक्रिय, प्रसन्न, उत्साही, सुरक्षित एवं स्वस्थ रह सके। क्योंकि कहा गया है कि गति में ही शक्ति है। ब्रन एनर्जी टू क्रिएट एनर्जी अर्थात और अधिक नई ऊर्जा को ़प्राप्त करने के लिए पहले संचित ऊर्जा को खर्च करना पड़ता है। 

यह भी पढ़ें : बाल्यावस्था में ही शान्ति के विचार बालक के मस्तिष्क में डालने होंगे

वृद्धावस्था लंबी प्रतीक्षा के बाद संतोष का मीठा फल चखने का दौर है:-            

सामान्यतः ऐसा माना जाता है कि वृद्धावस्था में व्यक्ति की कार्यक्षमता कम हो जाती है और वह किसी काम का नहीं रहता। वृद्ध व्यक्ति को शारीरिक और मानसिक श्रम वाले कार्य न सौंपे जाने के पीछे शायद यही वजह है। वृद्धावस्था तो उम्र का वह दौर होता है जिस तक आते-आते व्यक्ति अपनी पूरी जिंदगी का सार या निचोड़ अपने पास संजोकर रख चुका होता है। यह तो खुशी और संतुष्टि का दुर्लभ दौर है। वृद्धावस्था लंबी प्रतीक्षा के बाद संतोष का मीठा फल चखने का दौर है। उम्र भर की स्मृतियों, अनुभवों, सुख-दुख, सफलता-असफलता आदि की अमूल्य और अकूत पंँूजी का नाम ही वृद्धावस्था है अतः इसे किसी भी प्रकार निरर्थक नहीं कहा जा सकता। कुल मिलाकर हम कह सकते है कि बुढ़ापा अभिशाप नहीं बल्कि यह मानव जाति के लिए एक वरदान है। अतः हमें अपने बढ़े-बुढ़ों की उपेक्षा न करके उनका सम्मान करना चाहिए। वे हमारे लिए स्नेह, सम्मान, श्रद्धा, अनुभव और ज्ञान की पूँजी हैं। वृद्धावस्था का अगला पड़ाव मृत्यु दुःख तथा भय का नहीं वरन् प्रसन्नता का सन्देशवाहक है। आत्मा का परमात्मा की परम आत्मा से मिलन का सुअवसर है। भौतिक शरीर की मृत्यु होती है। आत्मा अजर अमर अविनाशी है। हमारे प्रत्येक कार्य-व्यवसाय रोजाना परमात्मा की सुन्दर प्रार्थना बने।

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Sanjeev Shukla
Sanjeev Shuklahttps://www.rashtrabandhu.com
He is a senior journalist recognized by the Government of India and has been contributing to the world of journalism for more than 20 years.
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